योग- एक परिचय: संक्षिप्त इतिहास एवं विकास,आधारभूत तथ्य, यौगिक अभ्यास : Bhupender Dev

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“योग प्राचीन भारतीय परम्परा एवं संस्कृति की अमूल्य देन है योग अभ्यास शरीर एवं मन विचार एवं कर्म आत्मसंयम एवं पूर्णता की एकात्मकता तथा मानव एवं प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है तथा यह स्वास्थ्य एवं कल्याण का पूर्णतावादी दृष्टिकोण है। योग केवल व्यायाम नहीं है, बल्कि स्वयं के साथ विश्व और प्रकृति के साथ एकत्व खोजने का भाव है। योग हमारी जीवन शैली में परिवर्तन लाकर हमारे अन्दर जागरुकता उत्पन्न करता है तथा प्राकृतिक परिवर्तनों से शरीर में होने वाले बदलावों को सहन करने में सहायक हो सकता है।”
सार रूप में कहें तो योग आध्यात्मिक अनुशासन एवं अत्यंत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित है जो मन और शरीर के बीच सामजस्य स्थापित करता है यहस्वस्थ जीवन की कला एवं विज्ञान है। संस्कृत वाङ्मय के अनुसार योग शब्द आधारित ज्ञान है जो मन और शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। यह स्वस्थ जीवन की कला एवं विज्ञान है। संस्कृत वाङ्मय धातु में घञ्प्रत्यय लगने से निष्पन्न हुआ है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार यह तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है।
(1.) युज् समाधौ समाधि
( 2 ) – युजिर योगे जोड़
(3) युज् संयमने = सामंजस्य । यौगिक ग्रंथों के = अनुसार योग अभ्यास व्यक्तिगत चेतनता को सार्वभौमिक चेतनता के साथ एकाकार कर देता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में जो कुछ भी है वह परमाणु का प्रकटीकरण मात्र है। जिसने योग में इस अस्तित्व के एकत्व का अनुभव कर लिया है, उसे योगी कहा जाता है, योगी पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर मुक्तावस्था को प्राप्त करता है। इसे ही मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य या मोक्ष कहा जाता है।
“योग” का प्रयोग आंतरिक विज्ञान के रूप में भी किया जाता है, जो विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं का सम्मिलन है, जिसके माध्यम से मनुष्य शरीर एवं मन के बीच सामंजस्य स्थापित कर आत्म साक्षात्कार करता है। योग अभ्यास (साधना) का उद्देश्य सभी त्रिविध प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति प्राप्त करना है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्रता तथा स्वास्थ्य, प्रसन्नता एवं सामंजस्य का अनुभव कर सके।
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योग का संक्षिप्त इतिहास एवं विकास

योग विद्या का उद्भव हजारों वर्ष प्राचीन है। श्रुति परंपरा के अनुसार भगवान शिव योग विद्या के प्रथम आदि गुरु योगी या आदियोगी हैं। हजारों-हजार वर्ष पूर्व हिमालय में कांति सरोवर झील के किनारे आदियोगी ने योग का गूढ़ ज्ञान पौराणिक सप्त ऋषियों को दिया था। इन सप्त ऋषियों ने इस अत्यन्त महत्वपूर्ण योग विद्या को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका सहित विश्व के अलग-अलग भागों में प्रसारित किया। आधुनिक विद्वान संपूर्ण पृथ्वी की प्राचीन संस्कृतियों में एक समानता मिलने पर अचंभित हैं, यह एक अत्यन्त रोचक तथ्य है। वह भारत भूमि ही है, जहां पर योग की विधा पूरी तरह अभिव्यक्त हुई । भारतीय उपमहाद्वीपों में भ्रमण करने वाले सप्तऋषियों एवं अगस्त्य मुनि ने इस योग संस्कृति को जीवन के रूप में विश्व के प्रत्येक भाग में प्रसारित किया।
योग का व्यापक स्वरूप तथा उसका परिणाम सिंधु एवं सरस्वती नदी घाटी सभ्यताओं 2700 ई.पू. की अमर संस्कृति का प्रतिफलन माना जाता है। योग ने मानवता के मूर्त और आध्यात्मिक दोनों रूपों को महत्वपूर्ण बनाकर स्वयं को सिद्ध किया है। सिंधु सरस्वती घाटी सभ्यता में योग साधना करती अनेक आकृतियों के साथ प्राप्त ढेरों मुहरें एवं जीवाश्म अवशेष इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत में योग का अस्तित्व था। सरस्वती घाटी सभ्यता में प्राप्त देवी एवं देवताओं की मूर्तियां एवं मुहरें तंत्र योग का संकेत करती हैं। वैदिक एवं उपनिषद् परंपरा, शैव, वैष्णव तथा तांत्रिक परंपरा, भारतीय दर्शन, रामायण एवं भगवद्गीता समेत महाभारत जैसे महाकाव्यों, बौद्ध एवं जैन परंपरा के साथ-साथ विश्व की लोक विरासत में भी योग मिलता है। योग का अभ्यास पूर्व वैदिक काल में भी किया जाता था। महर्षि पतंजलि ने उस समय के प्रचलित प्राचीन योग अभ्यासों को व्यवस्थित व वर्गीकृत किया और उनके निहितार्थ और इससे संबंधित ज्ञान को पातंजलयोगसूत्र नामक ग्रन्थ में क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित किया।

पतंजलि के बाद भी अनेक ऋषियों एवं योग आचार्यों ने योग अभ्यासों और यौगिक साहित्य के माध्यम से इस क्षेत्र के संरक्षण और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रतिष्ठित योग आचार्यों की शिक्षाओं के माध्यम से योग प्राचीन काल से लेकर आज सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित हुआ। आज सभी को योग अभ्यास से व्याधियों की रोकथाम, अच्छी देखभाल एवं स्वास्थ्य लाभ मिलने का दृढ़ विश्वास है । सम्पूर्ण विश्व में लाखों लोग योग अभ्यासों से लाभान्वित हो रहे हैं। योग दिन-प्रतिदिन विकसित और समृद्ध होता जा रहा है। आज के समय में यौगिक अभ्यास अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है।

योग के आधारभूत तथ्य

व्यक्ति की शारीरिक क्षमता, उसके मन व भावनाएं तथा ऊर्जा के स्तर के अनुरूप योग कार्य करता है। इसे व्यापक रूप से चार वर्गों में विभाजित किया गया है:
कर्मयोग में हम शरीर का प्रयोग करते हैं;
ज्ञानयोग में हम मन का प्रयोग करते हैं; भक्तियोग में हम भावना का प्रयोग करते हैं और
क्रियायोग में हम ऊर्जा का प्रयोग करते हैं।
योग की जिस भी प्रणाली का हम अभ्यास करते हैं, वह एक दूसरे से आपस में कई स्तरों पर मिली-जुली हुई होती हैं।

प्रत्येक व्यक्ति इन चारों योग कारकों का एक अद्वितीय संयोग है। केवल एक समर्थ गुरु (अध्यापक) ही योग्य साधक को उसके आवश्यकतानुसार आधारभूत योग सिद्धान्तों का सही संयोजन करा सकता है। योग की सभी प्राचीन व्याख्याओं में इस विषय पर अधिक बल दिया गया है कि समर्थ गुरु के मार्गदर्शन में अभ्यास करना अत्यंत आवश्यक है।”

स्वास्थ्य और कल्याण के लिए यौगिक अभ्यास

योग साधनाओं में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, बंध एवं मुद्रा, षट्कर्म, युक्ताहार, मंत्र जप युक्तकर्म आदि साधनाओं का अभ्यास सबसे अधिक किया जाता है।

यम प्रतिरोधक एवं नियम अनुपालनीय हैं। इन्हें योग अभ्यासों के लिए पूर्व अपेक्षित एवं अनिवार्य माना गया है। आसन का अभ्यास शरीर एवं मन में स्थायित्व लाने में सक्षम हैं कुर्यात् तदासनम् स्थैर्यम् अर्थात् आसन का अभ्यास महत्वपूर्ण समय सीमा तक मनोदैहिक विधि पूर्वक अलग-अलग करने से स्वयं के अस्तित्व के प्रति दैहिक स्थिति एवं स्थिर जागरुकता बनाए रखने की योग्यता प्रदान करता है।

प्राणायाम श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया का सुव्यवस्थित एवं नियमित अभ्यास है। यह श्वसन प्रक्रिया के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने एवं उसके पश्चात् मन के प्रति सजगकता उत्पन्न करने तथा मन पर नियंत्रण स्थापित करने में सहायता करता है । अभ्यास की प्रारंभिक अवस्था में श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया को सजगकता पूर्वक किया जाता है। बाद में यह घटना नियमित रूप से नियंत्रित एवं निर्देशितप्रक्रिया के माध्यम से नियमित हो जाती है। प्राणायाम का अभ्यास नासिका, मुख एवं शरीर के अन्य छिद्रों तथा शरीर के आंतरिक एवं बाहरी मार्गों तक जागरुकता बढ़ाता है। प्राणायाम अभ्यास के दौरान नियमित, नियंत्रित और निरीक्षित प्रक्रिया द्वारा श्वास को शरीर के अन्दर लेना पूरक कहलाता है, नियमित, नियंत्रित और निरीक्षित प्रक्रिया द्वारा श्वास को शरीर के अन्दर रोकने की अवस्था कुंभक तथा नियमित, नियंत्रित और निरीक्षित प्रक्रिया द्वारा श्वास को शरीर के बाहर छोडना रेचक कहलाता है।

प्रत्याहार के अभ्यास से व्यक्ति अपनी इंद्रियों के माध्यम से सांसारिक विषय का त्याग कर अपने मन तथा चैतन्य केन्द्र के एकीकरण का प्रयास करता है। धारणा का अभ्यास मनोयोग के व्यापक आधार क्षेत्र के एकीकरण का प्रयास करता है, यह एकीकरण बाद में ध्यान में परिवर्तित हो जाता है। इसी ध्यान में चिंतन (शरीर एवं मन के भीतर केंद्रित ध्यान) एवं एकीकरण रहने पर कुछ समय पश्चात् यह समाधि की अवस्था में परिवर्तित हो जाता है।

बंध एवं मुद्रा ऐसे योग अभ्यास हैं, जो प्राणायाम से सम्बन्धित हैं। ये उच्च यौगिक अभ्यास के प्रसिद्ध रूप माने जाते हैं, जो मुख्य रूप से नियंत्रित श्वसन के साथ विशेष शारीरिक बंधों एवं विभिन्न मुद्राओं के द्वारा किए जाते हैं। यही अभ्यास आगे चलकर मन पर नियंत्रण स्थापित करता है और उच्चतर यौगिक सिद्धियों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। हालांकि, ध्यान का अभ्यास, जो व्यक्ति को आत्मबोध एवं श्रेष्ठता की ओर ले जाता है, योग साधना पद्धति का सार माना गया है।

षट्कर्म – शरीर एवं मन शोधन का सुव्यवस्थित एवं नियमित अभ्यास है जो शरीर में एकत्रित हुए विषैले पदार्थों को हटाने में सहायता प्रदान करता है। युक्ताहार स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त सुव्यवस्थित एवं नियमित भोजन का समर्थन करता है।

मंत्र जाप मंत्रों का चिकित्सकीय पद्धति से उच्चारण ही जाप अथवा दैवीय नाम कहलाता है। मंत्र जाप सकारात्मक मानसिक ऊर्जा की सृष्टि करता है जो धीरे-धीरे तनाव से बाहर आने में सहायता करता है।

युक्तकर्म स्वास्थ्य जीवन के लिए सम्बक (उचित कर्म की प्रेरणा देता है।

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