समुन्द्र की क़तरा-ए-बून्द का भी एहसान नहीं है मुझ पर “राही”।
जब भी पिया है पत्थरों को तोड़ कर पिया है पानी।
विरासत में मिला है सिर्फ सलीका-ए-अदब।
बाकी सब हाथों से घड़ा है अपनी ज़मीं और आसमां।
तुम कहते हो कि हर जगह अपवाद न बनूं।
ये अपवाद ही तो मेरी पहचान है “राही”…..