हर साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के जीवित्पुत्रिका व्रत होता है। इसे जिउतिया या जितिया व्रत भी कहा जाता है। जितिया व्रत को माताएं अपनी संतान के दीर्घ आरोग्य और सुखमय जीवन के लिए व्रत रखती हैं।
हर साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के जीवित्पुत्रिका व्रत होता है। इसे जिउतिया या जितिया व्रत भी कहा जाता है। जितिया व्रत को माताएं अपनी संतान के दीर्घ, आरोग्य और सुखमय जीवन के लिए व्रत रखती हैं। जितिया का व्रत आज से शुरू हो रहा है। आज नहाए खाए है। तीन दिनों तक चलने वाले इस व्रत का मुख्य पूजा 10 सितंबर को है। इसे जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है। इस व्रत की शुरुआत सप्तमी से नहाय-खाय के साथ हो जाती है और नवमी को पारण के साथ इसका समापन होता है।
तीन दिन तक चलता है व्रत-
तीज की तरह जितिया व्रत भी बिना आहार और निर्जला किया जाता है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो महिलाएं जितिया व्रत को रखती हैं उनके बच्चों के जीवन में सुख शांति बनी रहती है और उन्हें संतान वियोग नहीं सहना पड़ता। इस दिन महिलाएं पितृों का पूजन कर उनकी लंबी आयु की भी कामना करती हैं।
इस व्रत में माता जीवित्पुत्रिका और राजा जीमूतवाहन दोनों पूजा एवं पुत्रों की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना की जाती है। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही कुछ खाया पिया जाता है। इस व्रत में तीसरे दिन भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाए जानें की परंपरा है।
जितिया व्रत की कथा के अनुसार यह माना जाता है कि इस व्रत का महत्व महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। जब भगवान श्री कृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे पांडव पुत्र की रक्षा के लिए अपने सभी पुण्य कर्मों से उसे पुनर्जीवित किया था। तब से ही स्त्रियां आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को निर्जला व्रत रखती हैं। कहते हैं कि इस व्रत के प्रभाव से भगवान श्री कृष्ण व्रती स्त्रियों की संतानों की रक्षा करते हैं।
जितिया व्रत का शुभ मुहूर्त-
10 सितंबर- दोपहर 2 बजकर 5 मिनट से अगले दिन 11 सितंबर को 4 बजकर 34 मिनट तक रहेगा।
पारण का शुभ मुहूर्त- 11 सितंबर को दोपहर 12 बजे तक पारण किया जाएगा।
जितिया व्रत का महत्व
एक समय की बात है, एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे, तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवम कथा सुनी। उस समय चील ने इस व्रत को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा, वहीं लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था। चील के संतानों और उनकी संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुंची, लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बची। इस प्रकार इस व्रत का महत्व बहुत अधिक बताया जाता हैं।